ख्वाहिश नहीं मुझे मशहूर होने की

 एक अज्ञात कवि की एक "सुंदर कविता", जिसके एक-एक शब्द को, बार-बार "पढ़ने" को "मन करता" है-_*


ख्वाहिश नहीं, मुझे

मशहूर होने की,"


        _आप मुझे "पहचानते" हो,_

        _बस इतना ही "काफी" है।_😇


_अच्छे ने अच्छा और_

_बुरे ने बुरा "जाना" मुझे,_


        _जिसकी जितनी "जरूरत" थी_

        _उसने उतना ही "पहचाना "मुझे!_


_जिन्दगी का "फलसफा" भी_

_कितना अजीब है,_


        _"शामें "कटती नहीं और_

  -"साल" गुजरते चले जा रहे हैं!_


_एक अजीब सी_

_'दौड़' है ये जिन्दगी,_


   -"जीत" जाओ तो कई_

 -अपने "पीछे छूट" जाते हैं और_


_हार जाओ तो,_

_अपने ही "पीछे छोड़ "जाते हैं!_😥


_बैठ जाता हूँ_

_मिट्टी पे अक्सर,_


        _मुझे अपनी_

        _"औकात" अच्छी लगती है।_


_मैंने समंदर से_

_"सीखा "है जीने का तरीका,_


        _चुपचाप से "बहना "और_

        _अपनी "मौज" में रहना।_


_ऐसा नहीं कि मुझमें_

_कोई "ऐब "नहीं है,_


        _पर सच कहता हूँ_

        _मुझमें कोई "फरेब" नहीं है।_


_जल जाते हैं मेरे "अंदाज" से_,

_मेरे "दुश्मन",_


   -एक मुद्दत से मैंने_

       _न तो "मोहब्बत बदली"_ 

      _और न ही "दोस्त बदले "हैं।_


_एक "घड़ी" खरीदकर_,

_हाथ में क्या बाँध ली,_


        _"वक्त" पीछे ही_

        _पड़ गया मेरे!_😓


_सोचा था घर बनाकर_

_बैठूँगा "सुकून" से,_


  -पर घर की जरूरतों ने_

        _"मुसाफिर" बना डाला मुझे!_


_"सुकून" की बात मत कर-

-बचपन वाला, "इतवार" अब नहीं आता!_😓😥


_जीवन की "भागदौड़" में_

_क्यूँ वक्त के साथ, "रंगत "खो जाती है ?_


  -हँसती-खेलती जिन्दगी भी_

        _आम हो जाती है!_😢


_एक सबेरा था_

_जब "हँसकर "उठते थे हम,_😊


  -और आज कई बार, बिना मुस्कुराए_

        _ही "शाम" हो जाती है!_😓


_कितने "दूर" निकल गए_

_रिश्तों को निभाते-निभाते,_😘


        _खुद को "खो" दिया हमने_

        _अपनों को "पाते-पाते"।_😥


_लोग कहते हैं_

_हम "मुस्कुराते "बहुत हैं,_😊


        _और हम थक गए_,

        _"दर्द छुपाते-छुपाते"!😥😥


_खुश हूँ और सबको_

_"खुश "रखता हूँ,_


        _ *"लापरवाह" हूँ ख़ुद के लिए_*

 *-मगर सबकी "परवाह" करता हूँ।_😇🙏*


*_मालूम है_*

*कोई मोल नहीं है "मेरा" फिर भी_*


   *कुछ "अनमोल" लोगों से_*

   *-"रिश्ते" रखता हूँ।*

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