बहती हो क्यूँ

मूल कवि : भारत रत्न भूपेंद्र हज़ारिका (असमी)
अनुवाद  : पंडित नरेंद्र शर्मा

विस्तार है अपार.. प्रजा दोनो पार.. करे हाहाकार...
निशब्द सदा , गंगा तुम, बहती हो क्यूँ ?
नैतिकता नष्ट हुई, मानवता भ्रष्ट हुई,
निर्लज्ज भाव से , बहती हो क्यूँ ?

इतिहास की पुकार, करे हुंकार,
गंगा की धार, निर्बल जन को, सबल संग्रामी,
गमग्रोग्रामी,बनाती नहीँ हो क्यूँ ?

विस्तार है अपार ..प्रजा दोनो पार..करे हाहाकार ...
निशब्द सदा , गंगा तुम, बहती हो क्यूँ ?

अनपढ जन, अक्षरहीन, अनगिन जन,
अज्ञ विहिन नेत्र विहिन दिक` मौन हो क्यूँ ? इतिहास की पुकार, करे हुंकार,
गंगा की धार, निर्बल जन को, सबल संग्रामी,
गमग्रोग्रामी,बनाती नहीँ हो क्यूँ ?
विस्तार है अपार ..प्रजा दोनो पार..करे हाहाकार ...
निशब्द सदा , गंगा तुम, बहती हो क्यूँ ?

व्यक्ति रहे , व्यक्ति केन्द्रित, सकल समाज,
व्यक्तित्व रहित,निष्प्राण समाज को तोड़ती क्यूँ ?
इतिहास की पुकार, करे हुंकार,
गंगा की धार, निर्बल जन को, सबल संग्रामी,
गमग्रोग्रामी,बनाती नहीँ हो क्यूँ ?

विस्तार है अपार ..प्रजा दोनो पार..करे हाहाकार ...
निशब्द सदा , गंगा तुम, बहती हो क्यूँ ?

रुतस्विनी क्यूँ रही ?
तुम निश्चय चितन नहीं प्राणों में प्रेरणा प्रेरती क्यूँ ?
उन्मद अवनी कुरुक्षेत्र बनी गंगे जननी
नव भारत में भीष्म रूपी सूत समरजयी जनती नहीं हो क्यूँ ?


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