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Showing posts from October, 2019

जिंदा रख

अमीर जिंदा रख, कबीर जिंदा रख.... सुल्तान भी बन जाए तो, दिल में फकीर जिंदा रख ...   हौसले के तरकश में, कोशिश का वो तीर जिंदा रख ... हार जा चाहे जिंदगी में सब कुछ, मगर फिर से जीतने की वो उम्मीद जिंदा रख... बहना है तो बेशक बह जा  मगर सागर में मिलने की वो चाह जिंदा रख ... मिटता हो तो आज मिट जा तू  मगर मिटने के बाद भी इंसानियत जिंदा रख....         

भाषा

श्री भारतेंदु हरिश्चंद्र (09 सितम्बर 1850 - 06 जनवरी 1885) निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल बिन निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल।। अंग्रेज़ी पढ़ि के जदपि, सब गुन होत प्रवीन पै निज भाषाज्ञान बिन, रहत हीन के हीन।। उन्नति पूरी है तबहिं जब घर उन्नति होय निज शरीर उन्नति किये, रहत मूढ़ सब कोय।। निज भाषा उन्नति बिना... निज भाषा उन्नति बिना, कबहुँ न ह्यैहैं सोय लाख उपाय अनेक यों भले करो किन कोय।। इक भाषा इक जीव इक मति सब घर के लोग तबै बनत है सबन सों, मिटत मूढ़ता सोग।। और एक अति लाभ यह, या में प्रगट लखात निज भाषा में कीजिए, जो विद्या की बात।। तेहि सुनि पावै लाभ सब तेहि सुनि पावै लाभ सब, बात सुनै जो कोय यह गुन भाषा और महं, कबहूं नाहीं होय।। विविध कला शिक्षा अमित, ज्ञान अनेक प्रकार सब देसन से लै करहू, भाषा माहि प्रचार।। भारत में सब भिन्न अति भारत में सब भिन्न अति, ताहीं सों उत्पात विविध देस मतहू विविध, भाषा विविध लखात।। सब मिल तासों छाँड़ि कै, दूजे और उपाय उन्नति भाषा की करहु, अहो भ्रातगन आय।।

क्या खोया, क्या पाया जग में

‘भारत रत्‍न’ पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी  (२५ दिसंबर १९२४ – १६ अगस्त २०१८)   क्या खोया , क्या पाया जग में मिलते और बिछुड़ते मग में मुझे किसी से नहीं शिकायत यद्यपि छला गया पग - पग में एक दृष्टि बीती पर डालें , यादों की पोटली टटोलें ! पृथ्वी लाखों वर्ष पुरानी जीवन एक अनन्त कहानी पर तन की अपनी सीमाएँ यद्यपि सौ शरदों की वाणी इतना काफ़ी है अंतिम दस्तक पर , खुद दरवाज़ा खोलें ! जन्म - मरण अविरत फेरा जीवन बंजारों का डेरा आज यहाँ , कल कहाँ कूच है कौन जानता किधर सवेरा अंधियारा आकाश असीमित , प्राणों के पंखों को तौलें ! अपने ही मन से कुछ बोलें !

पूर्व चलने के बटोही

रचनाकार : हरिवंश राय "बच्चन" (२७ नवम्बर १९०७ – १८ जनवरी २००३)     पूर्व चलने के बटोही , बाट की पहचान कर ले पुस्तकों में है नहीं छापी गई इसकी कहानी , हाल इसका ज्ञात होता है न औरों की ज़बानी , अनगिनत राही गए इस राह से , उनका पता क्या , पर गए कुछ लोग इस पर छोड़ पैरों की निशानी , यह निशानी मूक होकर भी बहुत कुछ बोलती है , खोल इसका अर्थ , पंथी , पंथ का अनुमान कर ले। पूर्व चलने के बटोही , बाट की पहचान कर ले। है अनिश्चित किस जगह पर सरित , गिरि , गह्वर मिलेंगे , है अनिश्चित किस जगह पर बाग वन सुंदर मिलेंगे , किस जगह यात्रा ख़तम हो जाएगी , यह भी अनिश्चित , है अनिश्चित कब सुमन , कब कंटकों के शर मिलेंगे कौन सहसा छूट जाएँगे , मिलेंगे कौन सहसा , आ पड़े कुछ भी , रुकेगा तू न , ऐसी आन कर ले। पूर्व चलने के बटोही , बाट की पहचान कर ले। कौन कहता है कि स्वप्नों को न आने दे हृदय में , देखते सब हैं इन्हें अपनी उमर , अपने समय में , और तू कर यत्न भी तो , मिल...

चल तू अकेला

रचनाकार :  रबीन्द्रनाथ ठाकुर (7 मई 1861 – 7 अगस्त 1941) तेरा आह्वान सुन कोई ना आए, तो तू चल अकेला, चल अकेला, चल अकेला, चल तू अकेला! तेरा आह्वान सुन कोई ना आए, तो चल तू अकेला, जब सबके मुंह पे पाश.. ओरे ओरे ओ अभागी! सबके मुंह पे पाश, हर कोई मुंह मोड़के बैठे, हर कोई डर जाय! तब भी तू दिल खोलके, अरे! जोश में आकर, मनका गाना गूंज तू अकेला! जब हर कोई वापस जाय.. ओरे ओरे ओ अभागी! हर कोई बापस जाय.. कानन-कूचकी बेला पर सब कोने में छिप जाय …

रीढ़

मूल कविता : कणा ( मराठी ) कवी : कुसुमाग्रज अनुवाद : गुलजार   " सर , मुझे पहचाना क्या ?" बारिश में कोई आ गया कपड़े थे मुचड़े हुए और बाल सब भीगे हुए पल को बैठा , फिर हँसा , और बोला ऊपर देखकर " गंगा मैया आई थीं , मेहमान होकर कुटिया में रह कर गईं ! माइके आई हुई लड़की की मानिन्द चारों दीवारों पर नाची खाली हाथ अब जाती कैसे ? खैर से , पत्नी बची है दीवार चूरा हो गई , चूल्हा बुझा , जो था , नहीं था , सब गया ! "’ प्रसाद में पलकों के नीचे चार क़तरे रख गई है पानी के ! मेरी औरत और मैं , सर , लड़ रहे हैं मिट्टी कीचड़ फेंक कर , दीवार उठा कर आ रहा हूं !" जेब की जानिब गया था हाथ , कि हँस कर उठा वो ... ’ न न ’ , न पैसे नहीं सर , यूंही अकेला लग रहा था घर तो टूटा , रीढ़ की हड्डी नहीं टूटी मेरी ... हाथ रखिये पीठ पर और इतना कहिये कि लड़ो ... बस !"

बहती हो क्यूँ

मूल कवि : भारत रत्न भूपेंद्र हज़ारिका (असमी) अनुवाद  : पंडित नरेंद्र शर्मा विस्तार है अपार .. प्रजा दोनो पार .. करे हाहाकार ... निशब्द सदा , ओ गंगा तुम , बहती हो क्यूँ ? नैतिकता नष्ट हुई , मानवता भ्रष्ट हुई , निर्लज्ज भाव से , बहती हो क्यूँ ? इतिहास की पुकार , करे हुंकार , ओ गंगा की धार , निर्बल जन को , सबल संग्रामी , गमग्रोग्रामी , बनाती नहीँ हो क्यूँ ? विस्तार है अपार .. प्रजा दोनो पार .. करे हाहाकार ... निशब्द सदा , ओ गंगा तुम , बहती हो क्यूँ ? अनपढ जन , अक्षरहीन , अनगिन जन , अज्ञ विहिन नेत्र विहिन दिक ` मौन हो क्यूँ ? इतिहास की पुकार , करे हुंकार , ओ गंगा की धार , निर्बल जन को , सबल संग्रामी , गमग्रोग्रामी , बनाती नहीँ हो क्यूँ ? विस्तार है अपार .. प्रजा दोनो पार .. करे हाहाकार ... निशब्द सदा , ओ गंगा तुम , बहती हो क्यूँ ? व्यक्ति रहे , व्यक्ति केन्द्रित , सकल समाज , व्यक्तित्व रहित , निष्प्राण समाज को तोड़ती न क्यूँ ? इतिहास की प...

कुफ़्र

आज हमने एक दुनिया बेची और एक दीन ख़रीद लिया हमने कुफ़्र की बात की सपनों का एक थान बुना था एक गज़ कपड़ा फाड़ लिया और उम्र की चोली सी ली आज हमने आसमान के घड़े से बादल का एक ढकना उतारा और एक घूँट चाँदनी पी ली यह जो एक घड़ी हमने मौत से उधार ली है गीतों से इसका दाम चुका देंगे -  अमृता प्रीतम

अब तो मजहब

कविता - अब तो मजहब रचनाकार – पद्मश्री और पद्म भूषण श्री गोपालदास “ नीरज ” (१९२४ – २०१८) अब तो मज़हब कोई ऐसा भी चलाया जाए। जिसमें इंसान को इंसान बनाया जाए। जिसकी ख़ुशबू से महक जाय पड़ोसी का भी घर फूल इस क़िस्म का हर सिम्त खिलाया जाए। आग बहती है यहाँ गंगा में झेलम में भी कोई बतलाए कहाँ जाके नहाया जाए। प्यार का ख़ून हुआ क्यों ये समझने के लिए हर अँधेरे को उजाले में बुलाया जाए। मेरे दुख-दर्द का तुझ पर हो असर कुछ ऐसा मैं रहूँ भूखा तो तुझसे भी न खाया जाए। जिस्म दो होके भी दिल एक हों अपने ऐसे मेरा आँसु तेरी पलकों से उठाया जाए। गीत उन्मन है , ग़ज़ल चुप है , रूबाई है दुखी ऐसे माहौल में ‘नीरज’ को बुलाया जाए।

मैं हिंदी हूं

मैं हिंदी हूँ ।। मैं सूरदास की दृष्टि बनी तुलसी हित चिन्मय सृष्टि बनी मैं मीरा के पद की मिठास रसखान के नैनों की उजास मैं हिंदी हूँ ।। मैं सूर्यकांत की अनामिका मैं पंत की गुंजन पल्लव हूँ मैं हूँ प्रसाद की कामायनी मैं ही कबीरा की हूँ बानी मैं हिंदी हूँ ।। खुसरो की इश्क मज़ाजी हूँ मैं घनानंद की हूँ सुजान मैं ही रसखान के रस की खान मैं ही भारतेंदु का रूप महान मैं हिंदी हूँ ।। हरिवंश की हूँ मैं मधुशाला ब्रज , अवधी , मगही की हाला अज्ञेय मेरे है भग्नदूत नागार्जुन की हूँ युगधारा मैं हिंदी हूँ ।। मैं देव की मधुरिम रस विलास मैं महादेवी की विरह प्यास मैं ही सुभद्रा का ओज गीत भारत के कण - कण में है वास मैं हिंदी हूँ ।। मैं विश्व पटल पर मान्य बनी मैं जगद् गुरु अभिज्ञान बनी मैं भारत माँ की प्राणवायु मैं आर्यावर्त अभिधान बनी मैं हिंदी हूँ।। मैं आन बान और शान बनूँ मैं राष्ट्र का गौरव मान बनू...