Posts

Showing posts from August, 2017

देशभक्ति कविताएँ

इस पन्द्रह अगस्त पर मैंने अपने कार्यालय में तीन कविता सुनाई थी।  उनमे से एक हमारे भूतपुर्व प्रधानमंत्री "श्री अटल बिहारी वाजपेयी" की रचना है।  उस रचना का नाम है :- "आजादी अभी अधूरी है "  वह  कविता इस प्रकार है :- पन्द्रह अगस्त का दिन कहता - आज़ादी अभी अधूरी है। सपने सच होने बाक़ी हैं, राखी की शपथ न पूरी है॥  जिनकी लाशों पर पग धर कर आजादी भारत में आई।  वे अब तक हैं खानाबदोश ग़म की काली बदली छाई॥  कलकत्ते के फुटपाथों पर जो आंधी-पानी सहते हैं।  उनसे पूछो, पन्द्रह अगस्त के बारे में क्या कहते हैं॥  हिन्दू के नाते उनका दुख सुनते यदि तुम्हें लाज आती।  तो सीमा के उस पार चलो सभ्यता जहाँ कुचली जाती॥  इंसान जहाँ बेचा जाता, ईमान ख़रीदा जाता है।  इस्लाम सिसकियाँ भरता है,डालर मन में मुस्काता है॥  भूखों को गोली नंगों को हथियार पिन्हाए जाते हैं।  सूखे कण्ठों से जेहादी नारे लगवाए जाते हैं॥  लाहौर, कराची, ढाका पर मातम की है काली छाया।  पख़्तूनों पर, गिलगित पर है ग़मगीन ग़ुलामी का साया॥  बस इसीलिए तो कहता हूँ आज़ादी अ...

जाड़े की धूप

आज मुझे फिर से बचपन एक कविता याद आ रही है।  यह कविता मुझे पूरी तरह से याद नहीं है।  पर जितनी याद है , उतनी ही यहाँ लिखता हु।  अगर आप में से किसी यह कविता याद हो या आपने कभी पढ़ी हो तो आप मेरी मदद करेंगे इसे पूरा करने में।   कविता का शीर्षक है "जाड़े की धुप " मुझे इस कविता के कवि /कवित्री  का नाम याद नहीं आ रहा है। कविता कुछ इस तरह है :- गरम धूप निकली, सभी सुगबुगाए  हटा  दो रजाई, चलो धूप खाए।  सुबह की नरम धूप में,चलो अब हम नहाये सभी हँस रहे है,सुहानी है बेला।  जुटे धूप में है सब,लगा जैसे मेला  शरद की सुबह धूप, किसको न भाति  कठिन ठंड से है ये सबको बचती।  रही कापती थरथराती,  जो कुतिया  मिला धूप पाकर , फुले न समाती।  ख़ुशी में उछलती, कभी दूम हिलती  कभी पास, कभी दूर चली जाती।  ......           

नई शुरुआत

इस ब्लॉग में आप हिंदी कविताओ का संग्रह पाएंगे। जो मैंने अपने बचपन के दिनों में सीखा था। पहली रचना जो मुझे आज भी याद है। वो शुभद्रा कुमार चौहान द्वारा रचित है।  कविता का शीर्षक है "यह कदम्ब का पेड़". यह  कदम्ब का पेड़ अगर माँ होता यमुना तीरे मैं भी उस पर बैठ कन्हैया बनता धीरे-धीरे ले देती यदि मुझे बांसुरी तुम दो पैसे वाली किसी तरह नीची हो जाती ये कदम्ब की डाली तुम्हें नहीं कुछ कहता पर मैं चुपके-चुपके आता उस नीची डाली से अम्मा ऊँचे पर चढ़ जाता वहीं बैठ फिर बड़े मजे से मैं बांसुरी बजाता अम्मा-अम्मा कह बंसी के स्वर में तुम्हें बुलाता सुन मेरी बंसी को माँ तुम इतनी खुश हो जाती मुझे देखने काम छोड़ तुम बाहर तक आती तुमको आता देख बांसुरी रख मैं चुप हो जाता पत्तो में छिपकर धीरे से फिर बांसुरी बाजाता घुस्से होकर मुझे डाटती कहती नीचे आजा पर जब मैं न उतरता हंसकर कहती मुन्ना राजा नीचे उतरो मेरे भईया तुम्हे मिठाई दूँगी नए खिलोने माखन मिसरी दूध मलाई दूँगी मैं हंस कर सबसे ऊपर टहनी पर चढ़ जाता एक बार ‘माँ’ कह पत्तों मैं वहीँ कहीं छिप जाता बहुत बुलाने पर भी...